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History of Temples of Uttarakhand

by Pankaj Pant
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Famous temples of Uttarakhand

History of Temples in Uttarakhand

उत्तराखण्ड के प्रमुख मंदिरो का इतिहास

Hemkund Sahib

हेमकुण्ड साहिब

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HEMKUND SAHIB

हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रमुख तीर्थ स्थान हैं। ये उत्तराखण्ड के चमोली जिले में स्थित है जो समुद्र तल से 15,200 फॅुट की ऊॅचाई पर स्थित है। इसके कपाट सन 2019 में 1 जून को खोले गये थे, कपाट खुलते ही इसकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है।

ये चारो और से बर्फ से ढके पहाडो से घिरा हुआ है। ये सात पहाडों से घिरी हुई है। ये एक बर्फीली झील के किनारे पर स्थित है। चारों और से बर्फ से घिरे पर्वतों का प्रतिबिम्ब इस झील में स्पष्ट देखा जा सकता है। हेमकुण्ड शब्द संस्कृत शब्द से बना हुआ है जहाँ हेम का अर्थ बर्फ से और कुण्ड का अर्थ कटोरा से है।

गोविन्द घाट से पैदल रास्ता तय करके यहाँ तक पहुचा जा सकता है। यहाँ पर सिखों के दसवें गुरू गोविन्द सिंह अपने जीवन में ध्यान साधना की थी। पहले यहाँ एक मन्दिर था जिसे भगवान राम जी के भाई लक्ष्मण जी द्वारा बनाया गया था, बाद में इसे गुरूद्वारा घोषित कर दिया गया था जो कि विश्व में सिखों के सबसे प्रसिद्ध तीर्थो में से एक है।

यह स्थान कई सालो तक गुमनामी में रहा उसके बाद उसकी खोज पंडित तारा सिंह नरोत्तम ने की थी, जो 19 वीं शताब्दी के महान विद्वान थे।

हेमकुण्ड का पता लगाने वाले वो पहले संत थे, जिसका वर्णन 1884 में प्रकाशित पुस्तक श्री गुड तीरथ संग्रह में भी किया गया है। ये स्थल सिखों के 508 धार्मिक स्थलों में सें एक है।

यहाँ पर एक झील भी बनी हुई है जहाँ वहाँ आने वाले श्रद्धालु स्नान करते है। यहाँ पर हाथी पर्वत सप्तऋषि पर्वत श्रंखलाओं से पानी आता है तथा झील से एक जलधारा निकलती है जिससे जो नदी बनती है वो हिमगंगा नदी कहलाती है। इस झील को लोकपाल झील नाम से जाना जाता है। यहाँ बर्फ से आच्छादित पर्वतो चीड देवदार के पेडो का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई पडता है।

फूलो की घाटी यहाँ से निकटतम पर्यटन स्थल है। अक्टूबर माह मे अधिक ठंड पडने बर्फ गिरने के कारण यहाँ के कपाट बंद कर दिये जाते है।

यहाँ जाने का रास्ता बहुत पथरीला बर्फ से ढके पहाडो से घिरा हुआ है जहाँ गोविन्द धाट से खडी चढाई करके जाना पडता है। यहाँ से जोशीमठ 40 किमी की दूरी पर स्थित है। वहाँ जाने वाले श्रद्धालुओं हेतु ऋषिकेश से हेमकुण्ड साहिब तक सभी गुरूद्वारों में खानेपीने रहने की व्यवस्था होती है।

Naina Devi Temple

नैना देवी मन्दिर

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NAINA DEVI TEMPLE

नैना देवी का मन्दिर उत्तराखण्ड के खूबसूरत शहर नैनीताल में स्थित है जो चारों और से नैनी पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ है। नैना देवी मन्दिर नैनीताल शहर के बीचों बीच में बसा हुआ है। नैनी झील के उत्तरी किनारे पर नैनी देवी मन्दिर स्थित है।

1880 मे यह मन्दिर आपदा भूस्खलन के कारण यह मन्दिर क्षतिग्रस्त हो चुका था, बाद में इसका पुनःनिर्माण किया गया था।

इस मन्दिर मे माँ के सम्पूर्ण शरीर की पूजा होकर माँ के नयनों की पूजा होती है। इस मन्दिर में माँ सती के शक्ति रूप की पूजा नैना देवी के रूप में होती है। यहाँ माँ नैना देवी के नेत्रों की पूजा पिण्डी रूप मे होती है। नैना देवी माता, माँ नंदा देवी की बहन कहलायी जाती है। यहाँ माता पार्वती को नंदा देवी कहा जाता है।

मन्दिर मे माता नैना देवी के साथ गणेश जी माँ काली की मूर्तिया भी रखी हुई है। मन्दिर मे नंदा अष्टमी के दिन विशाल मेले का आयोजन किया जाता है जो पूरे 8 दिनो तक चलता है। इस मन्दिर के प्रांगण में कई रंगबिरंगे पुष्प लगे हुए है जो श्रद्धालुओं को अपनी और आकर्षित करती है।

मान्यता के अनुसार जिस व्यक्ति को आँखों का रोग होता है उसके एक बार यहाँ दर्शन करने मात्र से ही उसके आँखों का रोग दूर हो जाता है। यह मन्दिर सुबह 6 बजे से रात्रि 10 बजे तक खुलता है। मन्दिर के पास ही एक बहुत बडा मैदान बना हुआ है जहाँ शाम के समय पर्यटको का तांता लगा रहता है।

यहाँ पर खाने शौपिंग करने का शौकीन रखने वाले लोगो के लिए अलगअलग किस्म के फास्ट फुड खरीददारी हेतु सामान मिलता है। यह मन्दिर नैनीताल बस अडडे से 2.5 किमी की दूरी पर स्थित है। नैनीताल में बोटिंग करने पर मल्लीताल से तल्लीताल आने पर बीच ताल से ही नैना देवी मन्दिर देखा जा सकता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह भगवान शिव से हुआ था। राजा दक्ष भगवान शिव को पसन्द नही करते थे। एक बार राजा दक्ष ने कनखल स्थित दक्ष प्रजापति में हवन पूजन आदि का आयोजन किया जिसमें उन्होने भगवान शिव को छोडकर अन्य देवी देवताओं को बुला लिया।

ये सुनकर भगवान शिव बहुत क्रोधित हुए परन्तु अपनी पत्नी देवी उमा के जिद करने पर वो वहाँ जाने के लिए तैयार हो गये। वहाँ पर राजा दक्ष द्वारा सभी देवो का सम्मान किया गया परन्तु भगवान शिव का अपमान किया गया। यह देख माता उमा को बहुत दुख हुआ।

वो यह कहकर हवन कुण्ड में कूद गई कि अगले जन्म में भी मे भगवान शिव की ही पत्नी बनूंगी और आपका यह हवन कभी सफल नही होने दूंगी, यह कहते हुए वो हवनकुंड में कूद गयी तथा सती हो गयी।

यह देखकर भगवान शिव ने अपने गणों के साथ राजा दक्ष के हवन कुण्ड को तोड डाला तथा क्रोधित हो कर माता सती के मृत शरीर को लेकर आकाश मार्ग में भ्रमण करने लगे। इस प्रकार भगवान शिव को देखकर सभी देवगढ सोचने लगते है कि भगवान शिव कही पृथ्वी को नष्ट कर दे तो सभी देवगढ भगवान शिव से प्रार्थना कर उनके क्रोध को शान्त कर देते है।

उसके बाद भगवान शिव माता सती के मृत जले हुए शरीर को लेकर आकाश मे घूमने लगते है, जिसजिस स्थान में देवी सती के शरीर के टुकडे गिरते है वही शक्ति पीठ स्थापित होते गये। उनके शरीर से उनकी आखें यहाँ आकर गिरी थी जिससे ये मन्दिर नैना देवी और ये शहर नैना देवी के नाम से जाना जाने लगा।

माँ सती के आखों से गिरे आसूओं से एक झील का निर्माण हुआ जिसे नैनीझील कहा जाने लगा। यहाँ आने के लिए काठगोदाम सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है वहाँ से लगभग 35 किमी की दूरी तय कर आप नैनीताल पहुँच सकते हैं। यहाँ का निकटतम हवाई अडडा पन्तनगर है जहाँ से आप प्राईवेट गाडी या सरकारी बस द्वारा आसानी से यहाँ तक पहुँच सकते है।

Binsar Mahadev Mandir

बिन्सर महादेव मन्दिर

“Binsar Wildlife Century and Hill Station”
Binsar Mahadev Temple

बिन्सर महादेव उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है जो 11 वीं से 18 वी शताब्दी तक चन्द्र राजाओं की राजधानी कही जाती थी।

यह समुद्र तल से 2480 मीटर अथवा 5500 फीट की ऊॅचाई पर स्थित है तथा कुंज नदी के तट पर बसा हुआ है। यह स्थल अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के लिए भी प्रसिद्ध है। यह मन्दिर भगवान शिव भगवान और माता पार्वती को अर्पित है।

हिमालय बिन्सर शब्द गढवाली बोली का एक शब्द है जिसका अर्थ नवप्रभात से होता है। यह अल्मोडा शहर से 34 किमी तथा रानीखेत से 19 किमी की दूरी पर स्थित है।

यहाँ जाने के रास्ते पर चारो तरफ से धने देवदार के वृक्ष है। यहाँ से देखने पर हिमालय की पर्वत चोटियों की लगभग 300 किमी लम्बी पर्वत श्रंखला देखने को मिलती है जिसमें हिमालय की केदारनाथ पर्वत श्रंखला, चौखम्बा, त्रिशूल, नंदाकोट, नंदादेवी, और पंचाचूली चोटियां दिखाई देती है।

यहाँ से कुमाऊॅ क्षेत्र की पहाडिया, पूरा अल्मोडा क्षेत्र उच्च हिमालयी क्षेत्र भी देखा जा सकता है जो यहाँ के सबसे बडे आकर्षणो मे से एक है। इस मन्दिर को राजा पृथ्वी ने अपने पिता बिन्दू की याद में बनवाया था इसलिए राजा बिन्दू के नाम पर ही इस मन्दिर का नाम बिन्देश्वर मंदिर रखा गया।

एक अन्य मान्यता के अनुसार पाण्डवों ने इस मंदिर का निर्माण किया था तथा एक ही रात में इसको बनाया था। इस मन्दिर के गर्भगृह में गणेश, हरगौरी, महेशमर्दिनी की मूर्ति स्थापित है। यहाँ बैकुंड चतुर्दिशी के अवसर पर एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है तथा विशाल भण्डारें का आयोजन भी किया जाता है।

मान्यता के अनुसार जिस महिला के सन्तान हो रही हो तो वो महिलायें इस मन्दिर में दिए लेकर पूरी रात आराधना करने से उन्हे अवश्य ही सन्तान की प्राप्ति होती है। इसी कारण सन्तान प्राप्ति हेतु महिलाए बडी संख्या मे यहाँ आती है और प्रार्थना करती हैं।

इस मन्दिर का जीर्णोधार जूना अखाडे द्वारा किया गया है तथा सन 1970 से यहाँ पर अखंड दीपक जल रहा है। यहाँ पर एक श्री शंकर शरण गिरि नामक संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना भी की गई है।

पौराणिक कथाओं कें अनुसार एक बार एक गांव मे एक वृद्ध व्यक्ति रहता था जिसकी उम्र 65 वर्ष थी जिसकी कोई संतान नही थी। एक बार उसके सपने में एक साधु आया जिसने उसे सपने में बताया की कु्रज नदी के पास की झाड़ियों मे एक शिवलिंग पडा हुआ है तुम उसे वहाँ से निकालकर उसे स्थापित करो और मन्दिर का निर्माण करवाओं।

उस व्यक्ति ने सपने में यह देखकर कुंज नदी के तट पर मन्दिर का निर्माण करवाया। उसके कुछ समय बाद ही उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

Baleshwar Mahadev Temple

बालेश्वर महादेव मन्दिर

Baleshwar Mahadev Temple

उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध मन्दिरों में सें बालेश्वर मन्दिर एक प्रमुख मन्दिर हैं जो जिला चम्पावत में स्थित है जिसका निर्माण चंद वंश के शासको ने करवाया था। जो मुख्य सडक से 100 मीटर अन्दर बना हुआ है।

चम्पावत जिला प्राकृतिक सौन्दर्य, धने जंगलो देवदार के पेडों से परिपूर्ण है। यह मन्दिर भगवान शिव को अर्पित है जो लगभग 200 वर्ग मीटर के क्षेत्र मे फैला हुआ है जिसके अन्दर 2 और मन्दिर स्थित है जो रत्नेश्वर तथा चम्पावती दुर्गा को समर्पित है।

यह मन्दिर राष्ट्र द्वारा संरक्षित स्मारकों में सें है जिसकी देखभाल संरक्षण का कार्य भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण देहरादून द्वारा किया जाता है। बालेश्वर मंदिर का निर्माण 8 वी 9 वी शताब्दी में हुआ था। यहाँ पर एक प्रसिद्व नौला भी बना हुआ है।

यह भी पुरात्तव सर्वेक्षण देहरादून द्वारा संरक्षित है। बालेश्वर मंदिर समूहो में बना हुआ मंदिर है जिसमें से बालेश्वर मंदिर प्रमुख है। मान्यता के अनुसार महाभारत काल में बाली ने असुरों द्वारा सुखशान्ति हेतु यहाँ पर शिव पूजन किया था। इसलिए इसे बाली और ईश्वर के नाम से इस स्थान का नाम बालेश्वर पडा।

यहाँ देवी के एक हाथ में त्रिशूल दूसरे हाथ में कटार है। पास मे ही एक सिंह की मूर्ति बनी हुई है। इस मन्दिर के निर्माण में बलुवा पत्थर ग्रेनाईट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। चम्पा देवी की पूजा माता दुर्गा जैसे ही होती है। यह शाह लोगों की कुलदेवी भी कहलायी जाती है। जिनके दर्शन हेतु लोग भारत के अलावा नेपाल से भी आते है।

बालेश्वर मंदिर के अन्दर ही चम्पावती देवी का मन्दिर है जो यहाँ के लोगों के लिए आस्था का केन्द्र है। चंपावती कत्यूरों की अंतिम संतान थी जो बहुत साहसी वीरांगना थी। राजा की अनुपस्थिति में रानी चंपावती ने कई युद्ध जीते थे, उन्ही के नाम पर इस शहर का नाम चंपावत रखा गया।

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