History of Uttarakhand
Temples
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध मंदिर व उनका इतिहासयहाँ के प्रसिद्ध मंदिरो में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री, हर–की–पौडी, ताडकेश्वर मंदिर, बागनाथ मंदिर, चितई गोलू देवता, जागेश्वर धाम, पाताल भुवनेश्वर, हाट कालिका मंदिर, पुर्णागिरी मंदिर, तुंगनाथ, कैंची धाम, हेमकुण्ड साहिब, नैना देवी मंदिर, बिन्सर महादेव, बालेश्वर मंदिर, त्रिजुगीनारायण, मदमहेश्वर महादेव, महासू देवता, धारी देवी, चंडी देवी, मंसा देवी, माया देवी, दक्षेश्वर महादेव मन्दिर तथा मुस्लिमों का प्रमुख तीर्थ स्थल पिरान कलीयर मुख्य है जिसके दर्शन हेतु दर्शनार्थी देश–विदेश से यहाँ आते है।
Kalimath Temple
उत्तराखण्ड को देवी व देवताओं की स्थली कहा जाता है। यही वो स्थल है जहाँ पर देवी, देवताओ और ऋषि मुनियों ने सालों तक तपस्या की थी।
यहाँ पर कई ऐसे स्थल है जिनका वर्णन पुराणों में भी है। इन्ही में से कालीमठ भी ऐसा स्थल है जिनका वर्णन पुराणो में मिलता है।
यह उत्तराखण्ड के जिला रूद्रप्रयाग में स्थित है। रूद्रप्रयाग को भगवान शिव की स्थली कहा जाता है। इस मन्दिर का निर्माण आदि गुरू शंकराचार्य जी द्धारा करवाया गया था। यह मन्दिर रूद्रप्रयाग के प्रसिद्व मन्दिरों व पर्यटक स्थलो में से एक है।
यह मन्दिर समुद्रतल से 1463 मीटर की ऊॅचाई पर स्थित है तथा भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है। कालीमठ मन्दिर हिमालय में केदारनाथ की चोटियों से घिरा हुआ तथा सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित है। कालीमठ मन्दिर देवी काली मां को अर्पित है।
यह मन्दिर साधना तथा तंत्र विद्या में देवी कामाख्या व ज्वालामुखी के समान ही प्रसिद्ध है। पूर्णमासी व अन्य काल रात्रियों में तांत्रिक क्रिया करने वालो का इस स्थान पर जमावडा देखने को मिलता है जिसका वर्णन स्कन्दपुराण के अन्दर केदारनाथ के 62 वें अध्याय में भी इस मन्दिर का विवरण पढने को मिलता है।
यह स्थल महान लेखक कालिदास का साधना स्थल भी है। यही पर कालिदास ने वर्षो तक मां काली की साधना की थी। मां काली की कृपा से ही उन्होने अनेको ग्रन्थ लिखे, जिनमे सें संस्कृत मे लिखा गया एकमात्र ग्रन्थ मेधदूत है जो बाद में विश्व प्रसिद्ध हुआ।
मन्दिर उत्तराखण्ड के सबसे शक्तिशाली मंदिरो में से एक माना जाता है। उत्तराखण्ड में मां काली के कई मन्दिर है परन्तु यह वों मन्दिर है जहाँ शक्ति स्वयं निवास करती है। इस मन्दिर में एक विचित्र बात ये है कि इसके अन्दर कोई मूर्ति नही है।
मन्दिर में मूर्ति की पूजा न होकर एक कुंड की पूजा होती है। यह कुण्ड रजतपट श्रीयन्त्र अर्थात चांदी की थाली से ढका हुआ रहता है जिसे पूरे साल में शारदे नवरात्री में अष्टमी के दिन खोला जाता है, जहाँ मध्यरात्रि के दिन मुख्य पुजारी ही रहते है जो मन्दिर के अन्दर रखे कुण्ड की पूजा करते है।
इसके दर्शन हेतु श्रद्धालु देश विदेश से यहाँ दर्शन करने हेतु आते है। यहाँ पर तीन अलग–अलग भव्य मन्दिर बने हुए है जिसमें एक मां काली का दूसरा माता लक्ष्मी तथा तीसरा मां सरस्वती का है जहाँ साल भर भक्तों का जमावडा लगा रहता है।
कालीमठ मन्दिर से 8 किमी आगे जाने पर एक दिव्य चटटान है जिसे दिव्य शिला या काली शिला कहकर पुकारा जाता है। उस शिला में आज भी मां काली के पैरो के निशान है। मान्यता ये भी है कि माता सती ने पार्वती के रूप में अपना दूसरा जन्म भी इसी शिला में लिया था।
मान्यता के अनुसार शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज जैसे दानवो के संहार हेतु मां काली 12 वर्षीय कन्या के रूप में यहाँ प्रकट हुई थी।
मन्दिर के समीप शिला पर ही राक्षस रक्तबीज का वध किया था तथा उसका सिर इस सिला पर रखा था तथा मुह खोलकर उसके रक्त को पीना शुरू कर दिया था ताकि उसका रक्त जमीन पर ना गिरे। वो रक्तबीज शिला आज भी नदी के किनारे पर स्थित है।
इसके बाद माता द्धारा शुंभ और निशुंभ का वध कर उनके सिर को मन्दिर के अन्दर स्थित कुंडे मे गाड दिये थे। तत्पश्चात मां काली इसी मन्दिर के अन्दर समा गई थी। तब से ही इस मन्दिर मे मां काली की पूजा होती आ रही है।
यहाँ चैत्र व शारदीय नवरात्रो में विशेष पूजा होती हैं तथा कालरात्रि की पूरी रात जागरण होता है। नवरात्रियों के समय पर यहा विशेष भीड रहती है जिसमें श्रद्धालु अपनी मनोकामना मांगने पूर्ति हेतु आते है।
यहाँ पहॅुचने हेतु आपको ऋषिकेश से रूद्रप्रयाग होते हुए गुप्तकाशी पहॅुचना होता है। वहाँ से टैक्सी या स्वयं के वाहन द्धारा आप कालीमठ पहॅुच सकते है।
Surkanda Devi Temple
उत्तराखण्ड अपने मन्दिरो के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ सैकडो की संख्या में मन्दिर है जो श्रद्धालु को अपनी और आकर्षित करते है। उन्ही में से एक और प्रसिद्ध एवं प्राचीन मन्दिर है सुरकंडा देवी।
सुरकंडा देवी मन्दिर हिन्दुओं का एक प्राचीन मन्दिर है जो जिला टिहरी मे स्थित है। यह मन्दिर सुरकुट पर्वत पर स्थित है। यह मन्दिर देवी दुर्गा को समर्पित है व माता के 51 शक्ति पीठो में से एक है।
मां दुर्गा मां के नौ रूपों में से एक है। इस परिसर मे मां दुर्गा के अलावा भगवान शिव व हनुमान जी के भी मन्दिर बने हुए हैं। यह मन्दिर चम्बा से 22 किमी तथा धनोल्टी से 7 किमी की दूरी पर स्थित है।
यह मन्दिर समुद्र तल से 2,757 मीटर की ऊचाई पर स्थित है। अधिक ऊचाई पर होने के कारण यहाँ से बद्रीनाथ, केदरनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री, तुंगनाथ, चैखंबा व नीलकंड के पहाडो की सुन्दर चोटिया स्पष्ट दिखाई देती है।
उत्तर दिशा से हिमालय की सुन्दर बर्फ गिरी चोटिया तथा दक्षिण दिशा से देहरादून व ऋषिकेश शहर का सुन्दर शहर दिखाई पडता है। अधिक ऊचाई पर होने के कारण ये मन्दिर ज्यादातर समय कोहरे सें ढका हुआ रहता है।
मां सुरकंडा देवी का मन्दिर साल भर खुला रहते है परन्तु यहाँ जाने हेतु 1 से 1.5 किमी की पैदल यात्रा करनी पडती है जो काफी कठिन होती है। केदारखंड व स्कंद पुराण के अनुसार जो भी सच्चे मन से मां से मुराद मांगता है उसकी हर मुराद पूरी होती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार दैत्यों द्वारा देवराज इन्द्र व देवताओं को परास्त करके स्वर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था तब देवताओं व देवराज इन्द्र द्वारा सुरकंडा देवी के मन्दिर में प्रार्थना की थी जिसके परिणामस्वरूप उनको मां सुरकंडा का आर्शीवाद प्राप्त हुआ और उन्होने युद्ध में दानवों को परास्त कर पुनः स्वर्ग पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था।
मान्यता के अनुसार इस मन्दिर मे एक बार जाने से भक्तों को सातों जन्मों के पापों से छुटकारा मिल जाता है। चंबा के नजदीक ही जडधार गांव को सुरकंडा देवी का मायका माना जाता है। उस गांव के लोग ही मन्दिर में पूजा पाठ आदि का काम किया करते है तथा मन्दिर की भी सारी व्यवस्था वे ही लोग देखते है।
इस मन्दिर के निर्माण के बारे में पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार राजा दक्ष द्धारा कनखल स्थित दक्ष प्रजापति मन्दिर में यज्ञ व हवन का आयोजन किया गया था। इस यज्ञ में सभी देवी व देवताओ को बुलाया गया था परन्तु सिर्फ भगवान शिव व देवी पार्वती को नही बुलाया गया।
भगवान शिव के मना करने के बाद भी देवी सती वहा पहुँच गई व भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाने का कारण पूछने लगी। यह सुनकर राजा दक्ष द्धारा भगवान शिव को बहुत भला बुरा कहने लगे।
राजा दक्ष की बात सुनकर माता सती को अत्यधिक क्रोध आया तथा उन्होने जलती हुई यज्ञ की अग्नि में कूदकर स्वयं की आहूति दे दी। यह सब सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया तथा व जलती हुई माता सती को लेकर आकाश मार्ग में भ्रमण करने लगे।
राजा दक्ष की बात सुनकर माता सती को अत्यधिक क्रोध आया तथा उन्होने जलती हुई यज्ञ की अग्नि में कूदकर स्वयं की आहूति दे दी। यह सब सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया तथा व जलती हुई माता सती को लेकर आकाश मार्ग में भ्रमण करने लगे।
जली हुई माता सती के टुकडे जहाँ– जहाँ गिरते रहे वहाँ पर माता के शक्तिपीठ स्थापित होते गये। इस जगह सुरकुट की पहाडियों पर माता सती का सिर गिरा था इस कारण यहाँ का नाम सुरकंडा देवी पडा।
मान्यता के अनुसार यहाँ पर गंगा दशहरा व नवरात्रियों के समय पर मां के दर्शन करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। इन अवसरों पर यहाँ बडी संख्या में श्रद्धालु आते है तथा अपने व अपने परिवार के लिए श्रद्धा से मन्नतें मांगते है।
यहाँ पर प्रसाद के रूप में भी खास औषधीय गुणों से युक्त रौंसली दी जाती है। यह एक प्रकार की पत्तिया होती है जिसे घर में रखने से घर में सुख व शान्ति का वास रहता है।
यहाँ पहॅुचने हेतु आपको सबसे नजदीकी हवाई अडडा जौलीग्रान्ट है तथा निकटतम रेलवे स्टेशन हरिद्वार, देहरादून तथा ऋषिकेश है जहाँ से आप देहरादून वाया मसूरी या ऋषिकेश वाया चंबा होते हुए यहाँ पहुचॅ सकते हैं। देहरादून वाया मंसूरी द्धारा आपको 73 किमी तथा ऋषिकेश वाया चंबा आपको 82 किमी की दूरी पडती है।
Siddhbali Temple
उत्तराखण्ड को मन्दिरों की स्थली कहा जाता है। यहाँ पर कई ऋषियों व सिद्ध पुरूषों द्धारा तपस्या की गई थी। यहाँ कई सिद्ध व प्राचीन मन्दिर है तथा हनुमान जी के भी कई चमत्कारी मन्दिर है जिसमें से बाबा सिद्धबली का हनुमान मन्दिर विश्व विख्यात मन्दिर है।
यह मन्दिर कोटद्धार में स्थित है तथा नजीबाबाद और बुआखाल राजमार्ग से लगा हुआ है। कोटद्धार को गढवाल का प्रवेश द्धार भी कहा जाता है। यह मन्दिर खेह नदी के तट पर करीब 40 मीटर ऊचे टीले पर स्थित है।
यहाँ दर्शन करने के लिए देश ही नही अपितु विदेश के लोग भी बाबा के दर्शन हेतु आते है। जो श्रद्धालु यहाँ पर सच्चे मन से मन्नत मांगते है हनुमान जी उन की सभी मनोकामना जरूर पूरी करते है यहाँ दर्शन कर मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु यहाँ भण्डारे का आयोजन भी कराते है।
यहाँ पर जनवरी, फरवरी, अक्टूबर, नवम्बर व दिसंबर माह मे प्रतिदिन तथा अन्य माह में मंगलवार, शनिवार व रविवार को भण्डारे का आयोजन होता है। यहाँ श्रद्धालु की संख्या अधिक होने के कारण भण्डारे के बुकिंग 2025 तक की पूरी हो चुकी है। शनिवार के भण्डारे के लिए भी बुकिंग 2019 तक पूरी हो चुकी है।
भारतीय डाक विभाग द्धारा भी मंदिर के नाम पर एक डाक टिकट 2008 में जारी किया जा चुका है। मान्यता के अनुसार कलयुग मे बाबा गोरखनाथ को इसी स्थल पर सिद्धि प्राप्त हुई थी। बाबा गोरखनाथ को भगवान शिव का अवतार भी माना जाता है।
इस मन्दिर की स्थापना के बारे में कहा जाता है कि यहाँ एक बाबा ने कई साल तक तप किया था उसके पश्चात उन बाबा को हनुमान जी की सिद्धि प्राप्त हुई थी। उन्ही सिद्ध बाबा ने यहाँ पर हनुमान जी की बडी सी प्रतिमा का अनावरण किया था। उन्ही के नाम पर इस मन्दिर का नाम सिद्धबली पडा अर्थात सिद्ध बाबा द्धारा स्थापित बजरंगबली का मन्दिर।
एक बार की कहानी के अनुसार ब्रिटिश काल में एक मुस्लिम अधिकारी इस रास्ते से कही जा रहा था उस स्थान पर आते ही वो बेहोश हो गये। बेहोशी में उसको सपना हुआ कि इस स्थान पर सिद्धबली जी की समाधि पर एक मन्दिर की स्थापना की जाये।
यह बात उन्होने पूरे गांव को बताई। बाद में उस मुस्लिम अधिकारी की बात सुनकर गांव वालो ने यहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया।
इस मन्दिर में जाने के लिए सडक से नदी के उस पार तक के लिए खो नदी के ऊपर एक पुल का निर्माण किया गया है। यहाँ से ऊपर जाने हेतु 40 मीटर टीले पर सीढिया बनी हुई है।
मन्दिर जाने के रास्ते पर दोनो तरफ प्रसाद की दुकाने व चाय पानी व खाने की दुकाने खुली हुई है। यह मन्दिर पूरे साल खुला रहता है तथा पूरे साल इस मन्दिर में श्रद्धालु का तांता लगा रहता है।
यहाँ जाने हेतु आपको सबसे पहले कोटद्धार पहुँचना होता है। कोटद्धार जाने हेतु आप बस व रेल किसी से भी वहाँ पहुँच सकते है। स्टेशन द्वारा आप बस या टैक्सी द्वारा सिद्धबली के मन्दिर तक आसानी से पहुँच सकते हैं।
Piran Kalier
उत्तराखण्ड देवी और देवताओं की भूमि है जहाँ हिन्दू और मुस्लिम समान रूप से मन्दिरों और मस्जिदों में पूजा अर्चना हेतु जाते है। यहाँ पर कई प्रसिद्ध मन्दिर होने के साथ–साथ कई प्राचीन मस्जिदें भी है जहाँ हिन्दू और मुसलमान पूजा करने हेतु जाते हैं।
यहाँ कई विश्व प्रसिद्ध मस्जिदे भी है जिनमें सें पिरान कलियर सबसे प्रमुख और विश्व प्रसिद्ध मस्जिद है।
यह रूडकी से 7 किमी की दूरी पर स्थित है जो रूडकी के कलियर नाम के गांव में स्थित है। यह मुसलमानों के लिए भारतवर्ष में सबसे सम्मानित दरगाह है। यहाँ दर्शन करने भारत ही नही अपितु पूरे विश्व से लोग साबिर पाक के दर्शन हेतु आते हैं और मन्नतें व चादर चढाते है।
यह मस्जिद 13 वीं शताब्दी के सूफी संत अलाउदीन अली अहमद साबिर कलियारी की दरगाह है जिनका जन्म मुल्तान में हुआ था। वो फरीद बाबा के बहन जमीला खतून के पुत्र थे जिसने अलाउदीन अली को बाबा फरीद को देखरेख के लिए सौप दिया था।
अलाउदीन अली ने अपने पूरे तन व मन से बाबा फरीद की सेवा की इसके परिणामस्वरूप उन्होने उस बालक को अपना शिष्य बना लिया था। जो बाद में बाबा फरीद के उत्तराधिकारी बने।
सन 1253 में बाबा फरीद द्वारा पिरान कलियर में उन्हें उत्तराधिकारी बनाने के बाद उन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन यही पर सेवा में लगा दिया था। 1291 ई0 में उनका निधन हो गया था।